Rath Yatra Story: उड़ीसा की विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा आने वाली जुलाई महीने की 7 तारीख से शुरू होने वाली है। उड़ीसा में इस रथ यात्रा का बहुत महत्व है और इसे बहुत ही उत्साह से मनाया जाता है। दुनिया भर के लोग इस यात्रा का हिस्सा बनने के लिए पुरी आते हैं। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ के द्वारा पुरी से गुंडिचा भ्रमण के लिए जाते हैं।
सदियों पुरानी इस जगन्नाथ रथ यात्रा की परंपरा को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर की सूची में भी शामिल किया गया है। क्या है इस जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व और Rath Yatra Story। जानने के लिए हमारे एक आर्टिकल से जुड़े रहें जिसमें आज हम चर्चा करेंगे कि क्या है जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व, रथ यात्रा का इतिहास, रथ यात्रा का विधान और Rath Yatra Story.
जगन्नाथ रथ यात्रा| Jagannath Puri Rath Yatra
भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध पुरी रथ यात्रा हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को शुरू होती है। इसमें भगवान जगन्नाथ अपने मंदिर से बाहर आकर भक्तों को दर्शन देते हैं और संसार का कल्याण करते हैं। माना जाता है कि उड़ीसा के पुरी क्षेत्र में भगवान जगन्नाथ ने अवतार लिया था। जगन्नाथ रथ यात्रा का उल्लेख स्कंद पुराण के वैष्णव खंड के पुरुषोत्तम क्षेत्र माहात्म्य में किया गया है। स्कंद पुराण के अनुसार सतयुग में भगवान जगन्नाथ की पहली रथ यात्रा निकाली गई थी।
इस रथ यात्रा के दौरान मंदिर के मुख्य सेवादार महाप्रभु जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा को मंदिर से लाकर एक रथ पर बिठाते हैं और सभी भक्तगण रथों को खींचते हुए मंदिर से 3 किलोमीटर दूर गुंडिचा लेकर जाते हैं। जहां महाप्रभु एक सप्ताह तक आराम करते हैं और उसके बाद वापस मंदिर लौट आते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्री जगन्नाथ मंदिर को द्वारिका के समान और गुंडिचा मंदिर को वृंदावन के समान माना है। इस प्रकार भगवान जगन्नाथ साल में एक बार द्वारका से वृंदावन भ्रमण करने जाते हैं।
रथ यात्रा का इतिहास| Rath Yatra History
अगर हम जगन्नाथ रथ यात्रा के इतिहास की बात करें तो कई पौराणिक ग्रन्थों में जगन्नाथ पुरी धाम को धरती का बैकुंठ माना गया है, यहां पर भगवान विष्णु ने कई तरह की लीलाएं रचाई हैं।
भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पहला प्रमाण महाभारत में मिलता है जिसमें सबर जाति के विश्वावसु द्वारा श्री विग्रह नील माधव के रूप में भगवान की पूजा का वर्णन है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी नगरी की भौगोलिक आकृति एक दक्षिणवर्ती शंख के तरह दिखाई देती है। जो 16 किलोमीटर के भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ है।
भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व| Importance Of Rath Yatra
विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा का भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व है। पुराणों में भी इस यात्रा के बारे में कहा गया है कि जो भी भक्त इस यात्रा का हिस्सा बनता है और इस दौरान प्रभु के दर्शन पाता है उसके सभी पाप, चाहे वह जानबूझकर किए गए हों या कभी भूल के कारण हुए हों, नष्ट हो जाते हैं। साथ ही उन्हें संसार के सभी दुखों और जन्म मरण के चक्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस साल यह रथ यात्रा 7 जुलाई से शुरू होकर 16 जुलाई तक चलेगी। आगे हम इस आर्टिकल में Rath Yatra Story के बारे में जानेंगे जो कि बहुत अद्भुत है।
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रथ यात्रा की परंपरा
ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा के दिन जगन्नाथ पुरी का अवतरण माना गया है। उस दिन प्रभु जगन्नाथ को भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा सहित सिंहासन से उतार कर स्नान मंडप में ले जाया जाता है और 108 कलशों से उनका स्नान कराया जाता है। उसके बाद 15 दिनों तक प्रभु बुखार से पीड़ित रहते हैं। इस अवधि में प्रभु ओसर घर में रहते हैं जो एक विशेष तरह का कमरा होता है।
इन 15 दिनों में किसी को भी भगवान के दर्शन करने की आज्ञा नहीं होती केवल मंदिर के पुजारी और वैद्य ही भगवान के दर्शन कर सकते हैं। 15 दिनों के बाद नव यौवन नेत्र उत्सव के दिन प्रभु उस विशेष कक्ष से बाहर निकलते हैं। उसके बाद शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन प्रभु अपने भाई बलभद्र और सुभद्रा के साथ रथ पर सवार होकर शहर घूमने के लिए निकलते हैं।
जगन्नाथ रथ यात्रा की कहानी| story of rath yatra
अगर हम Rath Yatra Story की बात करें तो जगन्नाथ रथ यात्रा की कई कहानियां प्रचलित हैं। जिनमें से सबसे अधिक प्रचलित Rath Yatra Story हम आपके साथ साझा कर रहे हैं जिसका विवरण स्कंद पुराण में दिया गया है। यह Rath Yatra Story इस प्रकार है।-
सतयुग में उज्जैन नगरी में राजा इन्द्रद्युम्न का शासन था। उनकी पत्नी का नाम गुंडिचा था। राजा के मन में भगवान के साक्षात दर्शन करने की अभिलाषा थी। एक बार अपने अतिथियों से उन्हें भगवान के नील माधव विग्रह के बारे में पता लगा जिनके दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति होती है और राजा के मन में उनके दर्शन करने की इच्छा जागी। उन्होंने अपने पुरोहित के पुत्र विद्यापति और अन्य सेवकों को नील माधव विग्रह का पता लगाने के लिए भेजा और उन्हें 3 महीने के भीतर लौट आने का आदेश दिया। 3 महीने बाद विद्यापति के अलावा सभी सेवक लौट आए।
विद्यापति नील माधव के विग्रह को ढूंढते हुए एक गांव पहुंचे और वहां के प्रमुख विश्वावसु के यहां अतिथि बनकर रहे। इस दौरान विश्वावसु की पुत्री से उन्हें प्रेम हुआ और उन्होंने विवाह कर लिया। अपनी पत्नी से ही उन्हें पता चला कि विश्वावसु नील माधव विग्रह के बारे में जानते हैं और रोज उनकी पूजा करने जाते हैं यह जानकर उन्होंने भी नील माधव विग्रह के दर्शन के अभिलाषा व्यक्त की।
विद्यापति की इच्छा जानकर पहले तो विश्वावसु ने मना किया क्योंकि उन्हें नील माधव के क्रोधित होने का भय था। लेकिन अपनी पुत्री की जिद के आगे वह हार गए और उन्होंने कहा कि वे विद्यापति को नील माधव के दर्शन करवाएंगे लेकिन उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर वहां ले जाएंगे, ताकि उन्हें नील माधव के वास के स्थान का पता ना चले। इसपर विद्यापति ने यह योजना बनाई कि वह दर्शन के लिए जाते वक्त सरसों की पोटली साथ में रखेंगे और पूरे मार्ग में सरसों के दाने बिखेरते जाएंगे बाद में उसे रास्ते पर मुझे सरसों से उगे पौधे के माध्यम से नील माधव मंदिर का रास्ता जानना सरल हो जाएगा।
नील माधव के दर्शन पर विद्यापति राजा इन्द्रद्युम्न के पास पहुंचे और उन्हें सारा वृत्तांत बताया। जब राजा नील माधव के दर्शन के लिए पहुंचे तो उन्हें वहां नील माधव विग्रह नहीं मिला इस पर उन्होंने सोचा कि विश्वावसु ने जरूर विग्रह को छुपा दिया है और उन्होंने विश्वावसु सहित सभी लोगों को बंदी बना लिया और अपने प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। तभी आकाशवाणी हुई और प्रभु ने कहा कि राजन मैं तुम्हें नील माधव के रूप में नहीं बल्कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रूप में दर्शन दूंगा। मैं बंकिम मुहाना के पास दारूकब्रह्म लकड़ी के रूप में वहां आऊंगा जिस पर शंख, चक्र, गदा और पदम् चिन्ह बने होंगे। तुम उस लकड़ी को वहां से निकाल कर उसके चार विग्रह बनाकर मंदिर में स्थापित कर मेरी पूजा करना।
इसके बाद राजा इन्द्रद्युम्न ने भगवान की मूर्ति की स्थापना के लिए एक विशाल मंदिर बनाया। समय आने पर भगवान दारुकब्रह्म लकड़ी के रूप में प्रस्तुत हुए जिसे समुद्र से निकलवा कर राजा ने मूर्तियां बनवाने का निर्देश दिया। इन मूर्तियों के निर्माण के लिए स्वयं विश्वकर्मा बढ़ई के रूप में प्रस्तुत हुए और उन्होंने राजा से शर्त रखी कि मैं अकेला 21 दिन तक एक बंद कमरे में यह मूर्तियां बनाऊंगा और यदि इस अवधि से पहले दरवाजा खोला गया तो मैं यह काम अधूरा छोड़कर ही चला जाऊंगा। राजा ने उनकी बात मान ली और मूर्ति का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।
14 दिन तक कोई भी आवाज सुनाई ना देने पर रानी गुंडिचा को लगा कि कहीं बिना भोजन हुआ पानी के उसे बढ़ई की मृत्यु तो नहीं हो गई, इसलिए उन्होंने दरवाजा खोलने का निर्देश दिया। दरवाजा खोलने पर वहां अधूरी मूर्तियां दिखाई दीं मगर बढ़ई दिखाई नहीं दिया। यह देखकर राजा को पश्चाताप हुआ तभी आकाशवाणी हुई कि राजन! मैं इसी रूप में प्रकट होना चाहता था इसलिए मेरे इन्हीं विग्रह को मंदिर में स्थापित करो। मंदिर में मूर्ति की स्थापना के बाद भविष्यवाणी हुई कि साल में एक बार भगवान जगन्नाथ अपने गृह नगर मथुरा जाएंगे। इसी आदेश के पालन हेतु हर साल रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है।
निष्कर्ष| Conclusion
तो दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हमने जगन्नाथ रथ यात्रा के बारे में चर्चा की। साथ ही हमने जगन्नाथ Rath Yatra Story, रथ यात्रा के इतिहास के बारे में जाना। ऐसी और भी महत्वपूर्ण जानकारी के लिए हमसे जुड़े रहे।
Rath Yatra Story- FAQ
भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा कब निकल जाती है?
भगवान जगन्नाथ भजन शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकल जाती है।
स्कंद पुराण के अनुसार पुरी जगन्नाथ का आकार कैसा है?
स्कंद पुराण के अनुसार पुरी जगन्नाथ का आकार एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है।
पुरी जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था?
पुरी जगरनाथ मंदिर का निर्माण राजा इन्द्रद्युम्न ने करवाया था।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ के विग्रह किस लकड़ी से बने हुए हैं?
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ का विग्रह दारुकब्रह्म लकड़ी से बना हुआ है।
चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी को क्या उपाधि दी है?
चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी को द्वारिका के समान बताया है।